दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु-शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी - कुल वल्लभ की प्रभा ॥१॥
-अयोध्याय सिंह उपाध्याय
प्रियप्रवास को आधुनिक काल का सबसे सफल माकाव्य माना गया है ,जिसकी रचन अयोध्याय सिंह उपाध्याय "हरिऔध" ने की है। इसका रचनाकाल 1909 से 1913 तक रहा है। बात करें इसकी काव्यवस्तु के आधार की तो वह श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है। इस पुरे काव्य में श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके यौवन ,कृष्णा का ब्रज से मथुरा को प्रवास करना और लौट आना संछिप्त वर्णित है। यह एक तरह का विरहकाव्य है। इस महाकाव्य में कुल 17 सर्ग हैं जो मुख्यतः दो भागों में विभाजित है। पहले से आठवें सर्ग तक की कथा में कंस के निमंत्रण लेकर अक्रूर जी ब्रज में आते है तथा श्रीकृष्ण समस्त ब्रजवासियों को शोक में छोड़कर मथुरा चले जाते है। वहीं बात करें नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक की तो, इन सर्गों में कृष्ण, अपने मित्र उद्धव को ब्रजवासियों को सांत्वना देने के लिए मथुरा भेजते है। बात करें भाषा की तो यह काव्य खड़ी बोली में लिखा गई है, खड़ी बोली में छोटे-छोटे कई काव्य-ग्रन्थ अब तक लिपिबध्द हुए हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश सौ-दोसौ पद्यों में ही समाप्त हैं, जो कुछ बड़े हैं वे अनुवादित हैं मौलिक नहीं।
प्यारे जीवें जगहित करें ,गेह चाहे न आवें।
इस काव्य में कृष्ण प्रिय राधा का भी वर्णन है जिसमे दर्शाया गया है कैसे राधा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से उपर उठकर मानवता के हित के लिए अपने प्रमी और प्रेम को समर्पित कर दिया ।
इस महाकाव्य में हरिऔध ने कृष्ण एवं राधा का भिन्न रूपों को चर्चित किया है। हरिऔध की प्रियप्रवास पर शिवदान सिंह चौहान कहते है कि
"प्रियप्रवास में कृष्ण अपने शुद्ध मानव रूप में विश्व कल्याण के काम में एक जन नेता के रूप में अंकित किए गए है"।
श्रीधर पाठक ने प्रियप्रवास के सम्बन्ध में लिखते हैं:-
दिवस के अवसान समे मिला।।
"प्रियप्रवास" अहो प्रिय आपका।।
अमित मोद हुआ चख कर चित्त को।।
सरस स्वाद -युता कविता नई ।।
दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥१॥
प्रियप्रवास षोडश सर्ग में श्रीकृष्ण के लोकसेवक रूप का चित्रण कुछ इस प्रकार किया गया है:
जो होता निरत तप में मुक्ति की कामना से।
आत्मार्थी है, न कह सकते हैं उसे आत
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