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“दुखिया मजूर की मेहनत पर,
कब तलक मलाई उड़ति रहे।
इनकी खोपड़ी पै महलन मा,
कब तक सहनाई बजति रहे॥
ई तड़क-भड़क, बैभव-बिलास,
एनहीं कै गाढ़ि कमाई आ।
ई महल जौन देखत बाट्या,
एनहीं कै नींव जमाई आ॥
ई कब तक तोहरी मोटर पर,
कुकुरे कै पिलवा सफर करी।
औ कब तक ई दुखिया मजूर,
आधी रोटी पर गुजर करी॥
जब कबौ बगावत कै ज्वाला,
इनके भीतर से भभकि उठी।
तूफान उठी तब झोपड़िन से,
महलन कै इंटिया खसकि उठी॥
‘आजाद’ कहैं तब बुझि न सकी,
चिनगारिउ अंगारा होइहैं।
तब जरिहैं महल-किला-कोठी,
कुटियन मा उजियारा होइहैं॥”
__जुमई खां ‘आजाद’
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