हिन्दी के ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनैतिक उपन्यासकारों में आचार्य चतुरसेन शास्त्री का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी औपन्यासिक कला के माध्यम से उपन्यास के क्षेत्र में नये युग की शुरुआत की। उनके उपन्यास अपने कथ्य, विषयवस्तु और शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट कहे जा सकते हैं। संस्कृतनिष्ठ तथा आलंकारिक भाषा-शैली में उनके उपन्यास कालक्रम तथा उद्देश्य की दृष्टि से विशिष्ट कहे जा सकते हैं। अगर आचार्य चतुरसेन शास्त्री की बात की जाय तो आचार्य चतुरसेन का जन्म 26 अगस्त 1891 ई॰ को उत्तरप्रदेश के सिकन्दराबाद में एक छोटे से गांव-चांदौख में हुआ था। उनके पिता का नाम केवलराम ठाकुर तथा माता का नाम नन्हीं देवी था। अनपढ़ माता तथा अल्पशिक्षित पिता की सन्तान चतुरसेन की प्रतिभा के बारे में ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि वे बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार होंगे। चतुरसेन बहुत ही भावुक, संवेदनशील और स्वाभिमानी प्रकृति के थे । दीन-दुखियों तथा रोगियों के प्रति उनके मन में असाधारण करुणा भाव था, जिसके कारण वैद्यकीय ज्ञान प्राप्त कर उन्होंने औषधालय भी खोला, जिसके कारण आर्थिक स्थिति इतनी अधिक बिगड़ी कि उन्हें अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े।
25 रुपये माहवार की नौकरी के बाद 1971 में डी॰ए॰वी॰ कॉलेज लाहौर में आयुर्वेद में शिक्षक बन गये। वहां उनकी नहीं बनी। अजमेर आकर उन्होंने अपने श्वसुर का कल्याण औषधालय संभाल लिया, जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो गयी। शास्त्रीजी ने जीवन के संघर्षो के बीच अपनी रचनाधर्मिता जारी रखी।
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