Share1 Bookmarks 49667 Reads7 Likes
खूँ रुलाएँगे हमें कब तलक, जाने ये ज़ख़्म-ए-इश्क़?
दिल भी अपना ही गया और, हमीं पे होते ज़ुल्म-ए-इश्क़
वो सूख गए, सींचते थे, आब-ए-चश्म से,
हमने कभी बोए थे जो, सीने में तुख्म-ए-इश्क़
महफ़िल में हुआ ज़िक्र, वफ़ा का जो सारी रात
ख़ामोश गुज़रती रही, उस रात बज़्म-ए-इश्क़
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments