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कुछ दिल भी हो रंजीदा, कुछ ख़ुद से ठनी हो
जब आग भी लगी हो, और ठंडक भी बड़ी हो
कैसे ना हर एक लफ़्ज़ से, मिलता हो तेरा अक़्स
जो सियाही ही आब-ए-चश्म के रंगों से बनी हो
गिरते ही, आब-ए-तल्ख़, भड़क उठते हैं शोले,
आग बुझती कहाँ है, आग जो सीने में दबी हो
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