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कब तक!
कहाँ तक!
पता नहीं!
नश्वर है सबकुछ
कर्म-अकर्म, विकर्म पर
ज़्यादा विमर्श किया नहीं।
काल के परे मैं नहीं हूँ
रोटी, कपड़ा और मकान तक
ही सीमित हूँ।
सालों साल की ज़ोर आज़माइश
यहाँ क्षणभंगुर रही हर फ़रमाइश।
लिख कर ले जाऊँगा
भरकर दोनों हाथों की मुट्ठियाँ,
तरह-तरह के भावों से
भरीं सब अधूरी चिट्ठियाँ।
कहाँ तक!
पता नहीं!
नश्वर है सबकुछ
कर्म-अकर्म, विकर्म पर
ज़्यादा विमर्श किया नहीं।
काल के परे मैं नहीं हूँ
रोटी, कपड़ा और मकान तक
ही सीमित हूँ।
सालों साल की ज़ोर आज़माइश
यहाँ क्षणभंगुर रही हर फ़रमाइश।
लिख कर ले जाऊँगा
भरकर दोनों हाथों की मुट्ठियाँ,
तरह-तरह के भावों से
भरीं सब अधूरी चिट्ठियाँ।
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