"संक्रमणकालीन दौर के पार"

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"संक्रमणकालीन दौर के पार" - © कामिनी मोहन पाण्डेय।

Kamini MohanKamini Mohan May 9, 2022
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"संक्रमणकालीन दौर के पार"
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।

कुछ शब्द स्मृति में रहते हैं जैसे संघर्ष, क्रांति, जन आंदोलन वगैरह। ये हमारे बोध को परिभाषित करते हैं। इनका हमारी चेतना पर मिला-जुला असर होता है। क्योंकि इको-सिस्टम की तरह ये हमारे इर्द-गिर्द ही मौजूद रहते हैं। जिन पारिभाषिक शब्दों को हम जानने के बाद अपनी समझ को विकसित समझते हैं। वे पूर्ण नहीं होते। हमारी सोच की सीमित हो जाना हमारी ना-समझी हैं।

यदि असंतोष व्यापक रूप से दिखाई देता है  तो हमारा दृष्टिकोण भी उसी के अनुसार बनता है। हम नकारात्मकता की ओर जल्दी आकर्षित होते हैं और हमारा ध्यान भी उधर ही रहता है। ऐसे में हम जीवन-पथ पर बहुत ही हड़बड़ी मचाते हुए भाग रहे होते हैं।

तेज़ी से बदलती दुनिया में बदलती सोच मनुष्य को स्थिर होने नहीं देते। हम भूल जाते हैं कि दायित्व बोध भी कोई चीज़ है। कर्तव्य कर्म भी कुछ है। बदलाव के लिए सुधार और परिवर्तन की स्वयं में आवश्यकता है। पीढ़ी का मतलब पुराने के साथ निबाह करने की चुनौती नहीं है। यह भव्यता और सभ्यता को समझना है।

संक्रमणकालीन दौर कोई भी हो उसके पार जाना ही है। हमारी सोच बाज़ार के हवाले हैं। हम बाज़ार के लिए उपभोक्ता से अधिक कुछ भी नहीं है। यथार्थ को समझने की भाषा विलुप्त है। हमारा जीवन हमारे रहन-सहन, रीति-रिवाज़ हमारी चेतना पर असर डालते है। फिर भी अनेक स्तरों पर तेज़ी से हो रहे बदलाव को हम सब सहते जाते हैं। हमारी सभ्यता में कई पीढ़ियों का योगदान है। यह योगदान सह-अस्तित्व के कारण है। इस सहअस्तित्व के लिए बाजारवाद एक बड़ी चुनौती है।

बाजारवाद वर्तमान का यथार्थ है। यह हमारी चेतना पर असर डाल रहा है। मनुष्य को बचाने के लिए उसकी चेतना को बचाना अत्यावश्यक है। हमारे सामने स्वयं को प्रकाशित करने का छल करती हुई तमाम चीज़े उपलब्ध है। लेकिन हमारी चेतना के लिए क्या सही है, क्या गलत है। यह चुनना किसी चुनौती से कम नहीं है।

सदियों के जीवन मूल्य से निकलकर तमाम विकल्पों और जीवन पद्धति का नि

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