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मेरे चारों ओर मनुष्य हैं बड़े,
अपार मन का भार लिए हैं खड़े।
वो उदार है जो राह में पड़े,
गिरे मन का भार थामने को खड़े।
उनके स्वागत को क्या कहे,
उदारता की चादर ओढ़े जो रहे।
सिर्फ़ ठीक है पूछा, कहा और,
चेहरे का दरवाज़ा बंद करते रहे।
जानता हूँ, हाल जानकर चाल बदल सकते नहीं,
पर साथ की हो जरूरत तो हाल पूछते नहीं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
अपार मन का भार लिए हैं खड़े।
वो उदार है जो राह में पड़े,
गिरे मन का भार थामने को खड़े।
उनके स्वागत को क्या कहे,
उदारता की चादर ओढ़े जो रहे।
सिर्फ़ ठीक है पूछा, कहा और,
चेहरे का दरवाज़ा बंद करते रहे।
जानता हूँ, हाल जानकर चाल बदल सकते नहीं,
पर साथ की हो जरूरत तो हाल पूछते नहीं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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