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ख़्याल द्रुत हो या कि विलंबित,
सुने हम हर्षनाद निनाद हर कहीं।
सुरभित वसंत न हो खण्डित,
धवल पुष्प व्यापित हो हर कहीं।
रंजित वर्जित कुछ भी हो भले कहीं,
जीवन रुके नहीं चलता रहे हर कहीं।
मेरे प्रेम का अर्थ बस इतना ही,
जैसे अविरल धार निरंतर बहती हो हर कहीं।
शनै-शनै मिटने का नहीं रहता इंतज़ार,
जीवट मनुष्य ने यहाँ कभी न मानी हार।
भावना का ज्वार जब-जब उठता अपार,
जन्म लेती रहीं यहाँ कविता बार-बार।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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