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भावना के ज्वार में कविता जन्म लेती हैं। फिर भी, अपने आप के लिए या दूसरों के लिए कई बार लोग अपने आप को परिभाषित करने लगते हैं। इस बात से चिंतित होते हैं कि दूसरे आपको कैसे परिभाषित करते हैं। लेकिन, हम इस बात से आनभिज्ञ रहते हैं कि अपने आपको या दूसरों को परिभाषित करना ख़ुद को सीमित करना है। यह ख़ुद की भी और हमारे सामने वाले की भी समस्या है।
हम जब भी लोगों के साथ बातचीत करते हैं, तो एक समारोह, एक भूमिका का रूप नहीं होना चाहिए, बल्कि जागरूक उपस्थिति का रूप होना चाहिए। यहाँ परिभाषित का सवाल कुछ खोने और पाने को लेकर है। हम यह सोचते हैं कि हम कुछ ऐसा खो सकते हैं जो हमारे पास है, लेकिन हम यह नहीं सोचते कि हम कुछ ऐसा नहीं खो सकते हैं जो हम स्वयं है। तो इस बात के लिए हमें अपना सबसे बड़ा शिक्षक बनना चाहिए। हम जिस परियोजना को शुरू करना चाहते हैं वह हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है। कुछ शुरू करने के लिए हमें ख़ुद को महान समझने की ज़रूरत है। परियोजना पर किया गया कार्य हमें हर स्टेप पर शिक्षित करता जाएगा।
हमें अपने विश्वास को सीमित नहीं करना चाहिए। क्योंकि कोई भी रोल मॉडल अचानक से शुरू नहीं होता है। जितना अधिक हम लोगों की सोच से बचते हैं, उतना ही सीखते हैं, उतना ही विकसित होते हैं। अपने आप से वादा करना चाहिए कि हर दिन हम कुछ ऐसा करेंगे जो हमें आगे बढ़ाएगा और हमें अपने समग्र लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करेगा।
हम अपनी दृष्टि के लिए स्वयं प्रतिबद्ध है। अंतिम परिणाम को जानते, मानते और देखते हुए महसूस करना चाहिए जैसे कि यह पहले से ही हो रहा है। जैसा कि हम सब जानते हैं और अनुभव करते हैं कि सीखना मूल्यवान है। लेकिन इस शुरूआत के लिए समझ की आवश्यकता है।
बहुत बार, हम कुछ चीजों को करना स्थगित कर देते हैं क्योंकि हमें लगता है कि इसके लिए पहले, हमें चालाक, अधिक आत्मविश्वासी, अधिक शिक्षित होने की आवश्यकता है। इसीलिए हमें अपने अभिनव विचारों और अपनी महानता को स्थगित नहीं करना चाहिए।
दर-अस्ल बात यह है कि हम कभी भी सौ प्रतिशत किसी भी कार्य को शुरु करने के लिए तैयार नहीं हो सकते हैं। हमेशा कुछ ऐसा होगा ही कि हम जिसे करने के बाद ही सीख सकते हैं। जीवन की कुशलता एक कौशल ही है, जिसे हम योग करके ही प्राप्त कर सकते हैं। भगवद्गीता के अध्याय-2 के श्लोक संख्या-50 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् ।।
इस श्लोक में ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ का वृहद अर्थ है- एक तो यह कि योग से ही कर्म में कुशलता प्राप्त होती है। दूसरा अर्थ यह है कि जो भी कर्म में कुशल होगा वह योगी होगा। अंत में यही कहना चाहूँगा कि यदि प्रेम जीवन-सापेक्ष है तो जीवन की भाषा हमेशा जागरूक, परिभाषित और समर्पित रहेगी। क्योंकि मनुष्यता के इस परिवेश में तर्क-वितर्क के लिए कहीं कोई जगह नहीं है। इससे कुछ परिभाषित भी नहीं होता है।
- © छायाचित्र- कामिनी मोहन।
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