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देह की खिड़की के पर्दे फड़फ़ड़ाएँ
- कामिनी मोहन।
देह की खिड़की के पर्दे फड़फ़ड़ाएँ,
भूमि-गगन-वायु-आकाश-नीर बरसाएँ।
और ये जीवन है कि,
निस्संग-संग की कविताएँ सुनाए।
अनुत्पाद्य अनिश्चय की,
ऊँची-नीची बहती धाराएँ।
प्रातः से संध्या तक,
नई-नई आराधनाएँ।
सुख नहीं दुख की तासीर है ज़्यादा,
बस दुख दूर करने को आगे आए।
उपस्थिति, अनुपस्थिति और प्रतीक्षा की
सब कविताएँ स्मरण हो जाए।
- कामिनी मोहन।
देह की खिड़की के पर्दे फड़फ़ड़ाएँ,
भूमि-गगन-वायु-आकाश-नीर बरसाएँ।
और ये जीवन है कि,
निस्संग-संग की कविताएँ सुनाए।
अनुत्पाद्य अनिश्चय की,
ऊँची-नीची बहती धाराएँ।
प्रातः से संध्या तक,
नई-नई आराधनाएँ।
सुख नहीं दुख की तासीर है ज़्यादा,
बस दुख दूर करने को आगे आए।
उपस्थिति, अनुपस्थिति और प्रतीक्षा की
सब कविताएँ स्मरण हो जाए।
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