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देह की खिड़की के पर्दे फड़फ़ड़ाएँ
- कामिनी मोहन।
देह की खिड़की के पर्दे फड़फ़ड़ाएँ,
भूमि-गगन-वायु-आकाश-नीर बरसाएँ।
और ये जीवन है कि,
निस्संग-संग की कविताएँ सुनाए।
अनुत्पाद्य अनिश्चय की,
ऊँची-नीची बहती धाराएँ।
प्रातः से संध्या तक,
नई-नई आराधनाएँ।
सुख नहीं दुख की तासीर है ज़्यादा,
बस दुख दूर करने को आगे आए।
उपस्थिति, अनुपस्थिति और प्रतीक्षा की
सब कविताएँ स्मरण हो जाए।
ऐसे में कविताओं को पकड़ों और बाँधो,
गले में टांगो ताकि तुम तक हर कोई पहुँच जाए।
खोलकर लय, छंद और ताल के ताले
अपनी कविताई खुलकर सुनाए।
कुछ सुख के, कुछ दुख के इरादे,
हृदय के दरवाज़े तक जब भी आए।
दसों दिशाओं में बहती जाए,
सबके दिलों तक पहुँच जाए।
गाने, तराने दिलों के याराने
सभ्यता, संस्कृति, इतिहास के फ़साने,
जीवन शब्द में टाँक आए।
ज़िंदा अद्वैत, द्वैत के बीच,
ख़ुद को ज़रा-सा बाँध आए।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
- कामिनी मोहन।
देह की खिड़की के पर्दे फड़फ़ड़ाएँ,
भूमि-गगन-वायु-आकाश-नीर बरसाएँ।
और ये जीवन है कि,
निस्संग-संग की कविताएँ सुनाए।
अनुत्पाद्य अनिश्चय की,
ऊँची-नीची बहती धाराएँ।
प्रातः से संध्या तक,
नई-नई आराधनाएँ।
सुख नहीं दुख की तासीर है ज़्यादा,
बस दुख दूर करने को आगे आए।
उपस्थिति, अनुपस्थिति और प्रतीक्षा की
सब कविताएँ स्मरण हो जाए।
ऐसे में कविताओं को पकड़ों और बाँधो,
गले में टांगो ताकि तुम तक हर कोई पहुँच जाए।
खोलकर लय, छंद और ताल के ताले
अपनी कविताई खुलकर सुनाए।
कुछ सुख के, कुछ दुख के इरादे,
हृदय के दरवाज़े तक जब भी आए।
दसों दिशाओं में बहती जाए,
सबके दिलों तक पहुँच जाए।
गाने, तराने दिलों के याराने
सभ्यता, संस्कृति, इतिहास के फ़साने,
जीवन शब्द में टाँक आए।
ज़िंदा अद्वैत, द्वैत के बीच,
ख़ुद को ज़रा-सा बाँध आए।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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