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237.मानसिक प्रवाह की आँच - कामिनी मोहन।

Kamini MohanKamini Mohan March 23, 2023
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वो प्रतिध्वनि जिसे पीछे छोड़ आए हैं,
उसे याद करने के सिवाय 
अनिश्चितता में उलझने के सिवाय 
अब तक, कुछ और कर नहीं पाए हैं। 

अनुकूल है 
या वाक़ई प्रासंगिक प्रतिकूल 
अपनी नियत को देखते हैं।
पदार्थों को हाथ में लिए खड़े हैं
स्मृति के तार से आ रही 
आवाज़ को चुपचाप सुनते हैं। 

जहाँ शब्दों को शांत किया है
वहाँ से कोई एक शोर लेकर आया करती हैं
एक धागा है जिसे कस के बांधा है
उसें तोड़ जाया करती हैं। 

धागे के टूटने पर भी दो सिरे हैं
दोनों किनारों की अपनी रवानियाँ है। 
उनकी कभी न बदलने वाली 
एक दूसरे से जुड़ी हुई प्रेम कहानियाँ है। 

जादू है वापस जुड़ जाने की सोच में
इसीलिए प्रतिबिंबित है
रचनात्मक स्पष्टता के ठोस पत्थर है।
जो प्रागैतिहासिक काल की दीवार को थामे 
बीते हुए लम्हों को उत्कीर्ण करते खुरदुरे स्तर है। 

घर पर कहे सुने गए शब्दों की 
लिपियां उत्कीर्ण है
जो अपनी चंचलता छिपाते हैं।
सब एक जगह बैठकर 
अलग-अलग पैटर्न बनाते हैं। 

बोलने की चाह रखते हैं
उत्सुक होते हैं।
शायद आपस में ही 
गुज़रे दिनों की बाते करते हैं। 

मानसिक इको की कविता को
तरोताज़ा करते हैं।
स्वतःस्फूर्त होने की चाह में
मानसिक प्रवाह की आँच को
न्यौछावर करने की चेष्टा करते हैं। 

- © कामिनी मोहन पाण्डेय। 

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