
कभी-कभी चीज़ों को नहीं जानना बहुत आसान होता है, लेकिन कठिनाई यह है कि संसार में जिन चीज़ों से हमारा परिचय है भी वह संसार तर्क की भाषा को समझता है। इस संसार में बग़ैर तर्क के विवादों से निकलने का पथ स्वीकार करना मुश्किल है। हाँलाकि इस संसार से परे भी एक संसार है, जहाँ तर्क की भाषा को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। वहाँ श्रद्धा और विश्वास की भाषा ही समझी जाती है। इस भाषा को समझने वाला समर्पण का पद स्वीकार कर चुका होता है।
श्रद्धा, विश्वास और समर्पण से उपजा प्रेम दो दिशाएँ लेकर जीवन में आता है। एक संसार की ओर जाता है, तो दूसरा तृप्ति की ओर। यह बिल्कुल प्रेम की तरह है। संसार की ओर निकल पड़ा प्रेम आसक्त होकर वासना में उलझता है, लेकिन चेतना की ओर बढ़ जाने वाला प्रेम संसार की ओर बहना छोड़ देता है। यह वाह्य शक्ति और वासनाओं से परे चला जाता है। श्रद्धा, विश्वास और समर्पण अपने ही स्व में बसे परमात्म तत्व की ओर बढ़ चलता है संसार की ओर चला हुआ प्रेम तर्क की मीनारें गढ़ता है। जिसकी ऊँचाई इतनी होती है कि उस पर चढ़ते हुए ही जीवन आपाधापी में ही गुज़र जाता है। ऐसा जीवन चेतना की ओर मुड़ कर देखने ही नहीं देता। तर्क अहम् की मीनारों की ओर चढ़ने की कोशिश में अहंकार की रक्षा करता जाता है, इसीलिए, गणित लगाता रहता है, और रोज़ नए-नए तर्क-वितर्क-कुतर्क गढ़कर चलायमान रहता है।
वस्तुतः फ़र्क़ करने पर पता चलता है कि श्रद्धा, विश्वास और समर्पण अहंकार को पनपने नहीं देता हैं, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अहंकार को मिटाने के बाद ही श्रद्धा, विश्वास और समर्पण प्रारंभ होता है।
कभी तृप्त न करने वाला संसार, संसार से मिल रहे प्रेम को और, और भी ज़्यादा पाने की इच्छा मे डूबा रहता है। ऐसे में, आंतरिक पथ पर चलना कठिन है। इस कठिन मार्ग पर चलने का साहस अभय-पथ का निडर पथिक ही उठा पाता है। आसक्त व्यक्ति राग, द्वेष, अपूर्ण इच्छाओं और अहंकार में स्वयं को ढूँढ़ने का प्रयास करता है।
चेतना से बाहर संसार को पाने के लिए तर्क की भाषा को मजबूत, और मजबूत बनाते जाना पड़ता है और यह तर्क की भाषा रोज़ नए आकार वाले घर में नए गणित के प्रश्न सुलझाने में नए शब्दार्थ गढ़ने में लगी रहती है। यथार्थतः भीतर की ओर जहाँ परम तत्व का वास है, वहाँ हमारी स्वयं की चेतन आत्मा के लिए एकमात्र श्रद्धा की आवश्यकता है।
चेतन स्व का स्वरूप आनंदमय है। यह दुःख से दूर निरंतर आनंदित है। इसीलिए आध्यात्मिकता का दूसरा नाम प्रसन्नता कहा गया है, जो प्रसन्न नहीं रह सकता, उसने स्वयं को नहीं जाना है, तो जिसने स्वयं को नहीं जाना, उसके लिए ईश्वर को जानना तो दूर की बात है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
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