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प्रदूषण से प्रताड़ित ये हवाएं
ज़रा सी देर चलकर हांफती है।
उतर कर ज़मीं पर पछताती नदियां
वापस घर को जाना चाहती हैं।
कुल्हाड़ी मारते हैं पैर पर हम
ज़रा सा भी नहीं अनुमान करते।
निरन्तर खो रहे हैं अपनी सांसे
हैं अपनी मौत से अनजान बनते।
अभी कब तक हमारी मूर्खता को
ये कुदरत ऐसे ही ढोती रहेगी।
यही आलम रहा तो अगली पीढ़ी
हमारे नाम को रोती रहेगी।
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