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यूँ तो सावन की फ़िज़ा कुछ और है
टूटे छप्पर की सदा कुछ और है।
आसमां खुद में मगन बेशक रहे
इस परिंदे की अदा कुछ और है।
मन्ज़िलों की अब किसे परवाह है
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