
होता ये कि अंगुली पकड़,
राह दिखाते,
मार्ग अवरूद्ध को,
सुलझाते,
काटें बीन बीन,
हमें दिखाते,
होता अनुभव कुछ,
हमें भी इस तरह,
चलने का हुनर आता,
चाल-चलन इस दुनिया का,
हमें भी बतलाना आता,
पर नही चुना,
हमको तुमने,
विपरीत इसके ठुकराया,
नाकाबिल का दे तमगा,
उपहास हमारा उड़ाया,
होता न अभिमान,
तुम्हे तुम्हारी शख्सियत पर,
तो शायद कुछ दिखाई देता,
शक्ल नही, हुनर मेरा,
हमने भी देखा,
गौर से आज चेहरा तेरा,
दर्प झलक रहा,
भरपूर,
अभिमानी मुस्कान में,
दर्प बिखरे भरपूर,
कैसी कचोट मन पर तुम्हारे,
परिश्रम का तो फल था हमारे,
दुखी थे तुम मन से,
पर खुश भी तो थे बेमन से,
ऐसा बदलाव,
कैसे सीखा,
कहां से जाना,
पल में ही दुश्मन माना,
हां!मैने भी,
अनजान दुश्मन पाला,
ईर्ष्या से जला,
अंतग्लानि के ताप,
पर तपा,
पाले मन में अनेक द्वंद,
देख अन्य की खुशियां अनंत,
था मन मे,
निर्मल सार्थक भाव,
जो कभी,
धूल गया जल बिन,
अभी-अभी,
आंखों ने पढ़ा,
हृदय ने किया आंकलन,
फिर मस्तिष्क ने माना,
व्यर्थ है इसका संकलन,
पर है वादा,वायदा,
कहता जो कायदा,
असहयोग तुम्हारा,
हमारी बुलंदी की,
कहानी गढ़ेगा,
हो मन में तुम्हारे,
हलाहल कितना,
एक दिन परचम,
शिखर लहराएगा,
आधे मन से है खड़े,
पर बाधाओं से ना डरे,
एक रोज मंजिल को,
छूकर,
हां!देखेंगे जब पीछे मुड़कर,
छूट जाओगे तुम,
जब गर्व के हाथो से,
और हो जाओगे,
चकनाचूर,
आऊंगा मैं,
जरूर लौटकर,
समेटने अभिमान मुक्त से कण.....
~इन्द्राज योगी
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