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सृष्टि नव पल्लवित हुई, अतुल मदन श्रृंगार।
जड़ता में होने लगा, ऊष्मा का संचार।।
पीत मुकुट धारण किये,आये हैं ऋतुराज।
धरणी धानी हो गई, नवल वधू सा साज।।
खेतों में लहरा रहे, सरसों के पीले फूल।
आम्र मंजरी पान में, भँवरे हैं मशगूल।।
कोयल की मीठी कुहुक, मंद पवन की थाप।
शीतल सिहरन भोर की, दिन का बढ़ता ताप।।
वसुधा पुलकित हो उठी, कण कण में है जोश।
जादू अजब निसर्ग का, जीव जगत मदहोश।।
शहरों में होता नहीं, रुत पतझड़ का अंत।
आदिम मन आकुल लगे, ढूंढें कहाँ वसंत।।
~ हिमकर श्याम
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