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*बाज़ार*


आवारा हूँ जगह जगह घूमा

एक बाज़ार घुमाता हूँ

खोजी आँखों से जो देखा

वो हिंदुस्तान दिखाता हूँ


मुंसिफ़ मिज़ाज रखिएगा

वरना मलाल होगा

सफ़ेद पहने आएगा

हक़ में सौदा दिलाएगा

दोस्त नहीं दलाल होगा


ख़ैर छोड़िए मुझे क्या

घुमाता हूँ अगुआ हूँ

मानता हूँ हिंदुस्तानी हूँ

ना हरा हूँ ना भगवा हूँ


तमाम ख़रीद फ़रोख़्त में

बस एक सिक्का ज़रूर चलता है

इस बाज़ार में बाट्टे नहीं होते

तराज़ू में रूपिया मग़रूर चलता है

फुटकर हो या थोक में

सब मिलेगा

ईमान हो या मज़हब

सब बिकेगा

यहाँ जौहरी भी बैठते हैं

यहीं धर्म काँटा भी चलता है


दरवाज़े दुकानें दिखावा हैं

वहाँ जाहिल ताक़त और रियासत के

हुकूमत और सियासत से

क़रार बनते हैं

असल बाज़ार

कूचे कोने किनारा हैं

जहां शाइस्ता ज़ात और जमात पे

अहमियत और जम्हूरियत के

दलाल चुनते हैं


वहाँ आख़िर तलक नज़र डालिए

तालीम भी दिखेगी

राजकुमारी सी सजी धजी

नुमाइश में खड़ी

वो भी बिकेगी

आम उसे छूँ नहीं सकता

हक़ है, कह नहीं सकता


वो तालीम के बग़ल में देखो

हाँ वो पेशों की दुकान है

क़ीमतों पे टिका

वो और एक जहान है


हकीम चाहिए मिल जाएगा

वकील चाहिए मिल जाएगा

क़ायदे ढूँढने कहाँ

किताबों के गोदाम जाइएगा

जेब में दोबारा हाथ डालिए

क़ानून भी यहीं मिल जाएगा


वो दो तंग दरवाज़े देखिए

जो पुराने से दिख रहे

ग़ौर तो कीजिए

फ़ख़्त दौलत शौहरत ही घुस रहे

ये दरवाज़े ख़ुफ़िया हैं

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