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मेरी लेखनी मेरी कविता
उठ जाता हूंँ भोर से पहले
सपने सुहाने नहीं आते,
अब मुझे स्कूल न जाने वाले
बहाने नहीं आते।।
कभी पा लेते थे घर से
निकलते ही मंजिल को,
अब मीलों सफर करके भी
ठिकाने नहीं आते ।।
यूं तो रखते हैं बहुत से
लोग पलकों पर मुझे,
मगर बचपन की तरह
दुलारने नहीं आते।।
माना जिम्मेदारियों की
बेड़ियाेें जकड़ा हुआ हूंँ,
आज बचपन के वो दोस्त
छुड़ाने नहीं आते ।।
बहला रहा हूंँ बस
दिल को बच्चों की तरह,
जानता हूंँ वापस
बीते जमाने नहीं आते।।
हरिशंकर सिंह सारांश
उठ जाता हूंँ भोर से पहले
सपने सुहाने नहीं आते,
अब मुझे स्कूल न जाने वाले
बहाने नहीं आते।।
कभी पा लेते थे घर से
निकलते ही मंजिल को,
अब मीलों सफर करके भी
ठिकाने नहीं आते ।।
यूं तो रखते हैं बहुत से
लोग पलकों पर मुझे,
मगर बचपन की तरह
दुलारने नहीं आते।।
माना जिम्मेदारियों की
बेड़ियाेें जकड़ा हुआ हूंँ,
आज बचपन के वो दोस्त
छुड़ाने नहीं आते ।।
बहला रहा हूंँ बस
दिल को बच्चों की तरह,
जानता हूंँ वापस
बीते जमाने नहीं आते।।
हरिशंकर सिंह सारांश
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