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ख्वाहिसों के इस शहर में
बिखरी पड़ी है ना जाने
कितनी हजारों ख्वाहिसे,
इन्ही हजारों ख्वाहिसो में,
सन्न सी बिखरी पड़ी है
मेरी कुछ अधूरी ख्वाहिसे,
जो कभी उठती है मन में,
जैसे हो उड़ती पतंग,
इस नील गगन में,
फिर टूट जाती है यहीं,
जैसे पतंग की डोर सी
फिर छूट जाती है यहीं,
मुट्ठी से गि
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