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ये चीरहरण मेरा नहीं, दुर्योधन !
है मानवता हुयी शर्मसार
किसने तुमको ये अधिकार दिया ?
मर्यादा को मेरी एक वस्त्र से बांध दिया ?
अन्याय को वे धर्म कहते रहे
भीष्म, द्रोण, विदुर सब सर झुकाये सुनते रहे
वस्त्र मेरा हरने चले
नग्न ये समाज खड़ा
स्त्री के सम्मान को उसके शरीर से जोड़ा
हाड-मांस की काया को उसका अस्तित्व बनाया
रही सदियों से यही प्रथा
स्त्री की बस वस्त्रों से मर्यादा
मैं भोग-विलास केवल श्रृंगार का साधन नहीं
तुम्हारे बनाये झूठे अभिमान की पहचान नहीं
दुर्योधन! लज्जित मुझे क्या तुम करोगे,
निर्लज्जों, की इस सभा में !
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