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शायद दिन आये फिर से बाहर के,
गुज़रा है गया साल हाल बेहाल के
मुबारक़ हो तुमको नये साल का सूरज,
दिन गिन रहा हूँ मैं बस इंतज़ार के।
जाने वाले मुझको मुड़ के न देख,
मैं बैठा हूँ पांव के कांटे संभाल के।
बहुत गुमा था हमे भी ज़िंदगी से कभी,
रखा है हमने कांच का बर्तन संभाल के।
©गोपाल भोजक
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