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तप गया हूँ शोलों में
अंगार थोड़ी दे दे
राख की बुझी पर आज तालाब तू लेले
मैं सूर्य के प्रकाश में तत्पर सुलगता हूँ
आज फिर कांटो के मार्ग पर कदम रखता हूँ
तिमिर के आकाश मैं प्यास है दिनकर
धधक रही ज्वाला को आज खोजता
कुंठित च्नद्र की रागिनी मैं लिपटे हुए आज
मैं कल की सुलग को फिर बुनता हूँ
ख्वाब तेरे भी हैं ख्वाब मेरे भी हैं
फिर ख्वाबों की स्याही से मैं ही क्यों लिखता हूँ
धड़क रहे विचारों की आग उमड़ रही
हाथों से लाख क्यों फिसल रही
लगता है तप गया हूँ शोलों में
राख की बुझी पर
आज अंगार तू लेले
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