मुझे बहुत अच्छे से याद है मेरे बचपन की शाम। पता नही उस समय मेरी उम्र क्या होगी लेकिन अभी ये लेख लिखते हुए वो मेरा बचपन मेरी आंखों के सामने से गुज़र रहा है।
मेरे दादा पाँच भाई थे और सभी ने मिलकर एक ही घर बनाने का फैसला किया। चुकी परिवार बड़ा था तो घर भी बहुत बड़ा बनाया गया और बीच में एक बड़ा सा सहन था उसमे पेड़ लगाया गया। घर से बाहर इतनी ही जमीन थी जितना की घर था। घर से बाहर खाली उस जमीन को हम अपनी मातृभाषा में "दुआर" (मतलब घर के बाहर का सहन) कहते हैं।
उस खाली जमीन के एक तरफ में बाँस की कोपालें लगाई गई जो कुछ ही दिनों में अच्छी खासी फैल गई थी। अब मैं अपने बचपन की बात बताता हूं। हर शाम को मैं और मेरे दोस्त वहीं घर के बाहर कभी लंगड़ी, तो कभी लुका-छिपी तो कभी कंचे इत्यादि, खेल खेला करते थे।
ये सब तो आम बातें हैं जो सभी के बचपन में होती हैं। खास बात ये है कि उन बाँस की कोपलों के बने हुए झाड़ में हर शाम को गौरैय्या चिड़ियों का झुंड आता था और हमारे साथ वो भी रात तक चहकते खेलते रहती थीं। ये भूल पाना बहुत मुश्किल है।
आज न ही वो दुआर (घर के बाहर का सहन) है और न ही वो बाँस की झाड़ियाँ जहाँ गौरैय्यों का झुंड आ कर बैठ सके। जब दादा जी के भाई अलग हुए और उनके बच्चे बड़े हुए तो जमीनों का बटवारा हुआ। परिवार बढ़ा तो घर बनाने की ज़रूरत महसूस हुई। उस ज़रूरत ने हमसे बचपन का दुआर (घर के बाहर का सहन) छीन लिया और गौरय्यों से उनका घर।
आज कल के बच्चों का बचपन तो फोन में जा घुसा है। किसी भी बच्चे के पास समय नहीं को वो फोन से निकल कर अपने दोस्तों के साथ ऐसे खेल सके और दूसरी बात ये भी है कि हमने और हमारे बुजुर्गों ने उनसे उनके खेलने का दुआर (घर के बाहर का सहन) और वो बाँस की झाड़ियाँ उखाड़ फेंकी है।
आज एक और किस
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