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222/222/1222
ये कैसे सपने बुन रहा हूं मैं,
सपनों में अपने चुन रहा हूं मैं।
बूढ़ी आँखे देखें मुझे कब तक,
अब तो आँखों से सुन रहा हूं मैं।
खुदको पटका इतना कभी मैंने,
की जैसे कपड़े धुन रहा हूं मैं।
कीड़े भी लगने लग गए मुझमें,
तो धीरे - धीरे घुन रहा हूं मैं।
इक दीपक की रौशनी से यूं,
पंडित कैसे जल भुन रहा हूं मैं।
✍️पंडित नरेन्द्र द्विवेदी✍️
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