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मुकम्मल जहाँ की फ़िराक में सब फिरते हैं मारे मारे
न मिली ज़मीं न मिला आसमाँ अधर में लटके बेचारे..
कुछ निकले पाने को कुछ खोने के डर से ज़िंदगी हारे
रह-ए-मंज़िल में निकले राहगीर बनकर रहे गए बंजारे..
रोज़ तमाशा देखते डूबने का वो जो रहते खड़े किनारे
बीच भँवर से बचाने वाले वो होते फ़लक के सय्यारे..
नेकी इक दिन काम आती है सबको समझाते हरकारे
जी
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