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दोनों ओर प्रेम पलता है सखि ,
पतंग तो भी जलता है दीपक भी जलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है ।
दोनों के जलने में आली किंतु पतंग भाग्य लिपि काली
आज यही खलता है , दोनों ओर प्रेम पलता है ।
पतंग [ उर्मिला जी ]
दीपक [ सीता जी ]
मैथिलीशरण गुप्त [ साकेत ]
मेरे दादा जी द्वारा बताई गई यह कविता आज मुझे एकाएक
याद आ गयी । अपितु मुझे यह भी पूरी तरह याद नही की यह कविता त्रुटि रहित है भी या नही जो मैंने यहाँ व्यक्त कर दिया । मैन साकेत का अध्ययन पुर्ण रूप से किया भी नही है किंतु इस कविता का सार मुझे अच्छी तरह याद है जिसके लाइन्स के दो अर्थ है । और उर्मिला जी के त्याग एवं प्रेम को खूबसूरती से गुप्त जी ने दिखाया है । तो कभी मौका मिले तो ज़रूर पढ़ियेगा।
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