Share0 Bookmarks 48865 Reads1 Likes
माँ की नज़रें दरवाज़े पर टंगी छोड़ कर मैं आज घर से निकल आया हूँ।
मेरे मादरे वतन तेरी आवाज़ सुन कर मैं बांध सर पर कफन आया हूँ।
आज भी घर की रसोई में वही मीठी खुशबु और वह रंग खिलते तो होंगे,
पर जिनमें खिलाती थी मेरी माँ हलवे मुझ को, छोड़ हर बर्तन आया हूं।
वह अब्सार जो राहगुज़र को ताकते होंगे, छोड़ इंतज़ार में वो नज़र आया हूं।
वो नन्ही उंगलियाँ जो पीठ पर कीड़ी चलाती थीं, उन्हें छोड़ अपने घर आया हूं।
मेरे मादरे वतन तेरी आवाज़ सुन कर मैं बांध सर पर कफन आया हूँ।
आज भी घर की रसोई में वही मीठी खुशबु और वह रंग खिलते तो होंगे,
पर जिनमें खिलाती थी मेरी माँ हलवे मुझ को, छोड़ हर बर्तन आया हूं।
वह अब्सार जो राहगुज़र को ताकते होंगे, छोड़ इंतज़ार में वो नज़र आया हूं।
वो नन्ही उंगलियाँ जो पीठ पर कीड़ी चलाती थीं, उन्हें छोड़ अपने घर आया हूं।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments