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दिन शुरू है तुझपे , तुझपे खतम ,
कैसे छुपाऊ तेरे दिए ये जख्म ,
जानता हूं तू मेरी कभी न हुई
कब तक ये दिल सहेगा तेरे ये सितम।
मेरी कलम की अकेली स्याही थी तू ,
जो कुछ लिखा भाव स्थाई थी तू ,
अब कैसे मैं खुदको शायर कहूं
दिल के मुक्त एहसासों की शायरी थी
अधूरी कहानी है क्या फायदा ,
भावना का बता क्या कायदा ,
अगर ठहर जाए धरा अक्ष पर तो
भानु शशि का क्या फायदा ।
मोहब्बत के बदले मोहब्बत नहीं मिलती ,
इनाम को छोड़िए कीमत नहीं मिलती ,
कैसे लिखूं मैं अपने दर्द
दूसरों के दर्द को कद्र नहीं मिलती ।
शिला में मिली कनिका हो तुम ,
अचेतन हृदय की मोनिका हो तुम ,
बार बार मैं टूटा अब गुलजार तो बना
अगाध जल की कर्णिका हो तुम ।
— देवांश कौशिक
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