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शीर्षक – शुभांगी


जिंदगी की कठिन राह में, इक प्रगाढ़ साथी जुड़ा है I

पाषाणित हर राह निश्चित, पुष्पित पथ की ओर मुड़ा है II

 

उस शख्सियत को क्या कहूँ, जब शब्द कोष में शब्द नहीं है I

ईश्वर तुल्य उपाधि उसकी, जिससे कौन यहां स्तब्ध नहीं है II

 

स्तब्ध है ये देख कर कि, क्या है जो ये कर ना पाए I

हर भयावह तिमिर में जब, ये मजबूत कवच बन जाए II

 

तीव्र प्रहार, जीवन की वेदना, क्षण भर में ये पता चलाए I

उस निशा तमतमे अन्ध में भी, आशादीपित लौ ये जलाये II

 

दीद कराते रहते हर दम, दूर शफक के पुष्य स्वप्न का I

नेपथ्य में कर कष्ट सारे, खिलखिलाए शून्य मन का II

 

गौरव ही बने वो ना कि निराशा, साहस बुद्धि का खुला तमाशा I

रीढ़ सा जो दृढ़ दिलासा, है शुभांगी की परिभाषा II

 

                      दीपक शर्मा

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