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चाक पर चलते हुए दो हाथ

हमसे पूछते है ,

अनगढ़ों के दौर मे कैसे

सृजन की बात संभव ...


चल रहे संबन्ध शर्तों पर

सतत अनुरागियों के ,

भ्रष्ट होते जा रहे आचार

अब वैरागियों के .


द्वेष के साम्राज्य मे कैसे

मिलन की बात संभव ..


बिना ब्याहे रह रहे जोड़े

नए परिवेश मे अब ,

स्नेह घटता जा रहा

उन्मत्त मिलते क्लेश मे सब .


मूल

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