
मैं कहीं और थी, किसी और की थी...
तुम भी कहीं और थे किसी और के थे,
एक दिन अचानक हमारे रास्ते मिल गए,
और हम-तुम भी मिल गए....
आरंभिक संकोच के उपरांत,
आरंभ हुआ घनिष्ठता का दौर,
फिर यूँ हुआ कि मैं तुम्हारी,
और तुम मेरे हो गए....
समस्त सृष्टि विलीन हो गई.... (1)
और हम-तुम ही रह गए...
एकदूजे में लीन सबसे अलिप्त,
सभी सुख-दुख को बाँटते हुए,
अपनी अपनी अतृप्तिओं का
शमन करते हुए तुम और मैं,
जीवन नवपल्लित हो उठा था
बसंत मधुरतम हो उठा था...
प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था,
और फिर अचानक ही शनै शनै
हमारे मघ्य कुछ बदलने लगा... (2)
तुम बदल रहे थे या मैं...
या समय ही बदल रहा था,
जो मैंने अनुभूत किया वो ये था,
कि तुम मेरे सामीप्य से कतरा रहे थे,
अब तुम अन्य लोगों के निकट,
रहने के अवसर खोजा करते थे,
मेरे जिन गुणों का तुम बखान
करते थे, प्रसंशा करते थे
अब किसी और के ही नाम थे.... (3)
जहाँ जहाँ कभी मैं थी वहां वहां
अब कोई और था!!!
हाँ तुम्हारी पद्धति नहीं बदली थी...
वो ही मनमोहक शब्दों का जाल,
वो ही अत्यधिक प्रसंशा के बोल,
वो ही छद्म आदर भाव!!!
वो ही शालीनता, संस्कार का मुखौटा
बस तुम्हारे स्नेह का पात्र बदल गया था!
और मेरे लिए तुम्हारे पास था... (4)
मेरे लिए तुम्हारे पास था...
समय का अभाव, ताने, बहाने,
दोषारोपण, विवशता का झूठ!!
दो पात्रों की एक अधूरी कहानी
यहीं समाप्त होती है...
तुमने तो दूसरी कहानियों का आरंभ
कर ही दिया है...
कदाचित #bina के लिए भी ईश्वर ने दुसरी कहानी गढ रखी होगी....!!!
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