
वो नदी किनारे मेरा गाँव, वो झूमते लहराते पेड़। वो वटवृक्ष उनमें झूलते खेलते बच्चे, उनका खिलखिलाना उनका लड़ना, झगड़ना और सुलह हो जाना। बातों बातों में वो झूठी क़समें खाना मुझे आज भी याद है। अनायास ही बचपन का वो अलौकिक दृश्य आज आंखों के सामने नृत्य कर रहा है, जैसे अभी अभी उस माहौल से गुजरा हूँ। वो नदी जो गांव के मुहाने में है, जिसको पार करने के लिए बरसात में नानी याद आ जाती थी। आज नदी को पार करने के लिए पुल बना दिया गया है। लेकिन अब नजदीकियां न रही। बातों बातों में एक दूसरे से लड़ना झगड़ना रोज की आदत सी हो गई है। मर्यादा की सीमा को पार कर सभी संस्कार हीन सा हो गए हैं। घर अब घर जैसा न रहा, अपना ही आंगन आज पड़ोसी का आंगन लगता है। वो बैठकखाना अब मुर्दा सा हो गया है, उसमें अब वो रौनक और बहार कहाँ। कभी गाँव के प्रधान से लेकर सरपंच तक चाय पान के बहाने जिन्दगी जिया करते थे। उसकी चमक न रही। अब तो मीठे शरबत की जगह विदेशी शराब ने ले ली, जिसे पीकर मतवाला हाथी की तरह बैखोफ जीते हैं लोग, जिसे अपने किए की ही खबर नहीं होती। परिवार अब त्योहार में ही नजर आता है। घर में तो वृद्ध पिता और माता अपने जीवन के आखिर दिन गिन रहे होते हैं। बेटे बहू अब शहर में बस गए हैं। अतिथि की तरह दो दिन के लिए आते हैं और चले जाते हैं। जैसे कोई फर्ज निभा रहा हो अपना होने का। वो नदी किनारे मेरा गाँव, वो झूमते लहराते पेड़....... अपना गाँव अब गाँव न रहा, गाँव की तस्वीर ही बदल गई है। शहर की हवा गाँव तक आ गई है। संस्कार, मर्यादा जैसे शब्द धूमिल हो रहे गाँव के शब्दकोष से। वो नदी किनारे मेरा गाँव, वो झूमते लहराते पेड़........... रचनाकार:- बिकास चन्द्र सिंह, देवघर( झारखण्ड)
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