वो नदी किनारे मेरा गाँव, वो झूमते लहराते पेड़। वो वटवृक्ष उनमें झूलते खेलते बच्चे, उनका खिलखिलाना उनका लड़ना, झगड़ना और सुलह हो जाना। बातों बातों में वो झूठी क़समें खाना मुझे आज भी याद है। अनायास ही बचपन का वो अलौकिक दृश्य आज आंखों के सामने नृत्य कर रहा है, जैसे अभी अभी उस माहौल से गुजरा हूँ। वो नदी जो गांव के मुहाने में है, जिसको पार करने के लिए बरसात में नानी याद आ जाती थी। आज नदी को पार करने के लिए पुल बना दिया गया है। लेकिन अब नजदीकियां न रही। बातों बातों में एक दूसरे से लड़ना झगड़ना रोज की आदत सी हो गई है। मर्यादा की सीमा को पार कर सभी संस्कार हीन सा हो गए हैं। घर अब घर जैसा न रहा, अपना ही आंगन आज पड़ोसी का आंगन लगता है।  
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