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ग़ज़ल
ये आंखें क्या से क्या छुपा रही है
तेरी ख़ामोशी मुझको खा रही है
मैं अपनी ही नज़र में गिर गया हूं
मुझे वो छोड़कर अब जा रही है
महफ़िल-ए-यार कि हम ना जाएं
मेरे यार-ओं को यारी सता रही है
क़ज़ा आए तो फ़िर आ ही जाए
मुझे ज़िंदगी हंसाना सीखा रही है
मेरे ख़्वाबों की ज़न्नत थी वहीं पे
ज़हां पर घर को तू बना रही है
कोई बिछड़ा हुआ गर लौट आए
भानु को याद उसकी आ रही है
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