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हम सहकर चले जो ख़लिश
बताना है मुश्किल
रातें क्या थी खामोश दिन कितने झियां
सुनाना है मुश्किल
चलें हम पैरों में कितने जफ़ा लेकर
दिखाना है मुश्किल
न ज़ाबित बने न ज़ाबिता निभा पायें हैं
जहां भी गये ज़र्ब लेकर लौट आयें हैं
हर बार करने को दूर जो तारीक निकले
हम खुद अंधेरे से भरपूर लौट आयें हैं
रोशनी तो खुद बे ताब है होने को ख़लास
इस जहान में कौन ताउम्र दाग छुपा पाएं हैं
है आसान कुछ बे नज़ीर करना हमारे लिए पर
ज़ताना है मुश्किल
~अज़हर
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