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जब कभी भी खुदकी ख़ोज में निकला ,
तब तब खुद से बिखर कर निकला ,
न मालूम मुझे की मुझसे क्या क्या निकला ,
जितना भी निकला सब राख सा निकला ,
पाया कभी न पूर्ण खुदको ,
मैं अपने भीतर अधूरा सा निकला ,
था गुजरा जब भी जीत की चाह में ,
मैं तब तब खुद से हार कर निकला ,
मिल
तब तब खुद से बिखर कर निकला ,
न मालूम मुझे की मुझसे क्या क्या निकला ,
जितना भी निकला सब राख सा निकला ,
पाया कभी न पूर्ण खुदको ,
मैं अपने भीतर अधूरा सा निकला ,
था गुजरा जब भी जीत की चाह में ,
मैं तब तब खुद से हार कर निकला ,
मिल
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