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सूखे रेगिस्तान में बादल की तरह
आना..
और फिर धीरे धीरे ठंडी बारिश की बूंदों
की बौछार...
चिड़ियों का चहचहाना..
जमीन से प्रस्फुट होकर जैसे पाया
हो नया जीवन किसी कोंपल ने..
उन कोपलों का फिर
गले से लिपट जाना
और माथे को चूमना..
किसी मरहिज हुए फूल
की सुगंध जैसे रूठी हुई
हो डाली से
और मुंह फुलाए
कह रही हो कलियों से..
ताकि फूलों का रस चुरा के लाने
वाले भंवरे मना सकें,
प्रतिहार में
रात्रि की अंतिम बेला तक ...
अधूरे ख्वाब हैं शायद ये मन के..
कभी कभी
जब चांद हो जाता है
उस रात्रि के अंतिम पहर में
बादलों की ओट में,
तो साथ नहीं होते फिर
वो सपने भी,
वो राग भी, वो मल्हार भी,
वो ध्वनियां भी वो मन से लिपटी
रेखाएं भी..
ख्वाब ही सही..
क्यों कि
सुना है
वो ख्वाब ज्यादा सुन्दर होते हैं
जो ख्वाब कभी हकीकत नहीं बनते.....
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