
सुर्ख रंग से रंगी इठलाती चली थी वो दुल्हन
सोलह श्रृंगार से सजा था मुखड़ा और प्रेम श्रृंगार से उसका मन
आज वो सयानी हुई समझी थी दुनिया के भेद,
सुख था प्रियतम के साथ का तो मायका छोड़ने का था खेद।
उसकी दुनिया बट रही थी मायके और ससुराल में,
संग चले थे साजन पर अश्रु सजे थे आंखो में।
इस दृश्य में श्रृंगार को क्या पूर्ण कर रहा है ?
आंखो से छलकते वो वेदना के बूंद
या फिर माथे पर सजा सुर्ख सिंदूर!
दुविधा बहुत है । सवाल एक ही
श्रृंगार की मर्यादा क्या है ?
पिया मिलन का सुख या , मां के आंचल से छूटने का दुख
मेरे नजर में श्रृंगार का एक और रूप है
उसकी कथा तो खुद में ही अनूप है।
वो सरहद पर लड़ता खाकी वर्दी वाला,
वो जो देश प्रेम में झूमता मतवाला।
क्या वो वीर , श्रृंगार नही ? सवाल है ये मेरा
संयोग यहां भी है , विरह यहां भी है,
वो सुर्ख रंग श्रृंगार का यहां भी है।
मिलन है यहां देश से , विरह हैं यहां बाकी शेष से,
सुर्ख यहा उसका लहू है जो न्योछावर किया उसने देशप्रेम में।
श्रृंगार की मर्यादा कुछ नही है,
वह स्वतंत्र है और सजी हुई है।
उगते सूरज में, खिलते कमल में,
नदी की धारा के चहल पहल में।
भाव अनेक है ,शब्द एक है
श्रृंगार ही है वो जो सबको समेट ले।
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