
गाँव-गाँव औ शहर-शहर,
बचपन से लेकर जीवन-भर।
माँ-पिता के जैसे हितकारी,
सरल,अहेतुक, जन-सुखकर।।
भीतर में जो सदबीज छुपे,
उनको वट-वृक्ष बनाते हैं।।
शिक्षक हैं हम, इस जग में,
शिक्षा के दीप जलाते हैं।।
जब कोई नन्हें पैरों से,
दहलीज लाँघकर आता है।
कोई घरवाला उंगली पकड़,
विद्यालय छोड़ के जाता है।।
उस रोते-बिलखते बचपन को ,
बहलाते,खिलाते,सिखाते हैं।
शिक्षक हैं हम इस जग में,
शिक्षा के दीप जलाते हैं।।
'अ' से अनगढ़ बचपन को,
'ज्ञ' से ज्ञानी हम करते हैं।
जीवन के भावी रास्तों पर,
चलने का हुनर हम भरते हैं।।
जोड़,घटाना,गुणा,भाग ,
जीवन का हम ही सिखाते हैं।।
शिक्षक हैं हम इस जग में,
शिक्षा के दीप जलाते हैं।।
अज्ञान मिटा अंतरतम का,
हम मन में उजाला भरते हैं।
दे शक्ति तर्क करने की हम,
अज्ञान,अविद्या हरते हैं।।
ज्ञान भरी हर बाती को,
चिंगारी से हम ही मिलाते हैं।
शिक्षक हैं हम, इस जग में,
शिक्षा के दीप जलाते हैं।।
कोई भी ऋतु या मौसम हो,
'अज्ञान' मिटाते रहते हैं।
ज्ञान,मान, सुख, मन की खुशी,
का मार्ग बताते रहते हैं।।
जीवन के गूढ़ रहस्यों को,
हम सहज,सुलभ कर जाते हैं।
शिक्षक हैं हम इस जग में,
शिक्षा के दीप जलाते हैं।।
-आशीष
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