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ग़ालिब को सुनती है,
गुलज़ार लिखती है,
सादगी में भी वो,
चाँद सी चमकती है!
शहर की चकाचौंध से,
कहीं दूर घर है उसका,
सुकूत रातों में,
उसका दर महकता है।
बातिल के लोग भी,
नहीं पास उसके,
कुछ जिगरी यारों से ही
उसका गुलिस्तां महकता है।
-त्रिशा।
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