
प्रेम पर अब क्यों लिखें
बंद करो प्रेम पर लिखना
परन्तु क्यों, क्यों न लिखूं मेैं
ठीक ही तो है, एक उम्र होती है प्रेम की
अब तीस बरस के बाद क्यों लिखूं प्रेम
अब क्या प्रेम !
तो क्या लिखूं उन सत्यों पर
जो पेैरों तले रौंद दिए जाते हैं,
या अपने ही जान पहचान के लोगों के दोहरे व्यक्तित्व पर ?
या अपने नाम के आगे श्रीमती लिखे जाने पर होने वाली बहस के विषय में
या फिर लिखूं उन औरतौं पर जो दो या तीन बेटियों की मां होने की व्यथा को सहती हैं।
किस पर लिखूं उन नन्हीं कलियों पर जो खिलने से पहले ही तोड़ ली जाती हैं,
या फिर कानून के नीचे होती दहेज संबंधी हत्याओं पर
माता पिता के दहेज न दे पाने की स्थिति में एक बेकसूर लड़की जला दी जाती है
ये पीड़ा सिर्फ एक लड़की की नहीं है, ये पीड़ा उन माता पिता की भी है जो ये सब सह चुके हैं,
ये पीड़ा हमारे इस दोगले समाज की भी है, जिसे पता तो सब है मगर सिर्फ मिट्टी के बुत्त हैं इस समाज में।
क्यूं हमेशा एक लड़की को सब कुछ सहना पड़ता है, क्यूं सहे वो पहले बेटी बन कर, फिर पत्नी बनकर
फिर मां बनकर आखिर क्यूं सहे हम, क्या लड़की का जन्म इन व्यर्थ की बातों को सहने के लिए है,
क्यों उस मर्द ने उसी औरत की कोख से जन्म लेने के बाद भी उसकी कोई कद्र नहीं जानी है, आखिर क्यूं और कब तक सहें
ये प्यारी लड़कियां जो सच में मासूम हैं पर उन्हें इस मासूमियत को छोड़ने पर मजबूर किया है, इस समाज ने आखिर क्यूं सहें.... क्यूं?????
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