
Share0 Bookmarks 27 Reads0 Likes
सावन भी धीरे धीरे,
भूतकाल हो गया,
हर रोज उसके इंतजार में,
निकल गया,
कभी आएगी वो,
बतयाएगी वो।
लेकिन ये सपना ही रह गया,
वो नहीं आई,
उसकी याद,
हर दम दिमाग में छाई,
उसका उठना बैठना,
बात करने का लैहजा,
रहा पुरी तरह हावी,
लगता है,
जिंदगी यूं ही कटेगी।
वो कैसी महबूबा,
जिसने कभी अपना,
पांव नहीं धरा,
बस एक सोच दे देती,
मुझे उसमें व्यस्त कर देती,
न उसे मेरी परवाह,
न कोई फ़िक्र,
एक मैं ही,
जो उसके बिना,
रहता विचलित।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments