
आखिर क्यों?
छुप के ही हमेशा रहना क्यों?
झुक के ही हमेशा रहना क्यों?
डर के ही हमेशा रहना क्यों?
चुप ही हमेशा रहना क्यों?
किस बात की घबराहट?
किस बात की शर्म?
किस बात का पर्दा?
किस बात का दुपट्टा?
लाज किस बात की?
घूँघट किस बात का?
आख़िर किस बात का बतंगड?
किस बात का मुद्दा?
किस बात की बहस?
किस बात का तमाशा?
किस बात का बवाल?
लड़की होने का?
बेटी होने का?
बहू होने का?
माँ होने का?
पत्नी होने का?
बहन होने का?
कितने सालों में तोड़ेंगे ये दरवाज़ा?
कितनी पीढ़ियों बाद खोलेंगे ये किवाड़?
कितनी मशक़्क़त
कितनी अग्नि परीक्षाओं
कितने अंगारों से हो कर गुज़रने बाद?
बस।
निकलें अब बाहर।
अभी।
इसी वक़्त।
और फेंक निकालें पुरानी ओछि मानसिकताओं के ये भारी कवच।
क्योंकि पढ़- लिख कर,
सब हासिल कर,
कंधे-से-कन्धा मिला कर भी
ज़िंदगी क्यों गुज़ारेंबेनाम सी इस मज़बूरी और
बदतर सी इस ग़ुलामी की?
आखिर क्यों?
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