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खत
पुराने सामान से कल तुम्हारा ,
एक खत मिला ,
उस समय जो न समझ पाया ,
अब समझ में आया।
तुमने लिखा था भूल जाऊँ तुम्हे ,
आगे सफर साथ नहीं हो सकता ,
कितना रोया था मैं उस रात ,
आँसुओ का सैलाब आया था।
लगा था इक पल की ,
जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया ,
ज़ीने का मकसद जैसे ,
हाथ से छूट गया था।
वक्त ने धीरे धीरे मरहम लगाया ,
यादें कुछ धुँधली हुई ,
दिमाग ने अपने वजूद का ख्याल दिलाया ,
फिर पटरी पर अपनी गाड़ी ले आया।
तुम्हारा खत फाड़ा नहीं ,
करीने से बंद कर छिपा दिया ,
कल खोला था वो खजाना ,
सबसे पहले वही हाथ आया।
मगर अब न कोई शिकवा ,
न कोई शिकायत है ,
मैं भी खुश हूँ ,
शायद तुम भी।
उस खत को फिर मैंने ,
झाड़ा , साफ़ किया ,
और फिर करीने से ,
तह करके उसी जगह ,
फिर छुपा दिया।
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