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जिन ज़ख्मों पर रोज़ दवाई लगती है
एक अरसे से दबी-दबाई लगती है
कँधों पे जो देश उठाए उनकी गर्दन
कुछ मकसद से झुकी-झुकाई लगती है
कदमों से वो रौंद रहे सड़कों का सीना
अंदर तक कोई शूल चुभाई लगती है
अर्जी उनकी कौन लगाए दरबारों तक
जिनकी पीड़ा सुनी-सुनाई लगती है।।
© अमित अफ़रोज़ गुलशन
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