झूठी सख्शियत's image
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राह में मैं एक दफा, खुद से हीं टकरा गया

अक्स देखा खुद का तो, होश मुझको आ गया

दूसरो को दूँ नसीहत , काबिलियत मुझमे नहीं

आँख औरों को दिखाऊं, हैसियत इतनी नहीं

 

आईने में खुद का चेहरा, रोज ही तकता हूँ मैं

मैं भला हूँ झूठ ये भी, खुदसे ही कहता हूँ मैं

अपने फैलाये भरम में, हर घडी रहता हूँ मैं

सोच की मीनारों पर, बस पूल बांधता हूँ मैं

 

बातों में मेरी सच की, दूर तक झलक नहीं

इस जमी मिलता जैसे, दूर तक फलक नहीं

क्या गलत है क्या सही है, मुझको ना परवाह है

जो भी मैंने चुन लिया है, बस सही वो राह है

 

बे अदब सा दूसरो के संग, पेश मैं आता रहा

गैर तो क्या अपनो का भी, दिल मैं दुखाता रहा

बातों में लहजा नहीं, ना उम्र का ख़याल है

फितरत आवारों सी, और बेहूदी सी चाल है

 

कौंन है जो इस जहां में, मेरा कुछ बिगाड़ेगा

देख के वो रूतबा मेरा, अपना सर झुका लेगा

इस भरम में जी रहा हूँ, जिंदगी के चार दिन

शख्शियत झूठी सही पर, जी ना पाऊं इसके बिन



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