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कभी मैं दासतां दिल की, नहीं खुल के बताता हूँ
कई हैं छंद होंठो पर, ना उनको गुनगुनाता हूँ
अभी तो पाया था मैंने, सुकून अपने तरानों से
उसे तुम भी समझ जाओ, चलो मैं आजमाता हूँ
जो लिखता हूँ जो पढ़ता, हूँ वही बस याद रहता है
बस कागज कलम हीं है, जो मेरे पास रहता है
भरोसा बस मुझे मेरी, इन चलती उँगलियों पर है
ज़हन जो सोच लेता है,कलम वो छाप देता है
भले दो शब्द हीं लिक्खु, पर उसकेमायने तो हो
सजाने को मेरे घर में , कोई एक आईना तो हो
भला करना है क्या मुझको, बताओंशीश महलो से
सुकूं से छिपा लूँ सिर मैं अपना ऐसा कोई एक पता तो हो
कभी कोई मुझसे हीं, मुझी को पूछ ना बैठे
मैं थोड़ा सा घमंडी हू, कोई ये सोच ना बैठे
मैं सदा चुप हीं रहता हूँ, नहीं गुरूर ये मेरा
जो दिल को खोल दोगे तुम, बना लूँगा वहीं डेराँ
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