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हाँ-हाँ मैं अपराधी हुँ बस, अधर्म करने का आदि हूँ
पर मुझको खुद पर लाज नहीं, जो किया मैं उसपर गर्वित हुँ
जो देखा सब यहीं देखा, जो सीखा सब यहीं सीखा
मैं माँ के पेट का दोष नहीं, ना हीं मैं सुभद्रा का बेटा
दूध की प्याली के खातिर, मैंने माँ को बिकते देखा है
अपने पेट की भूख मिटाने, बाप से पिटते देखा है
फटें कपड़ो से तन को ढकते, बहनों के संघर्ष को मैं जानू
गिद्ध के जैसी कामुक नज़रें, मैं उन सब को पहचानूँ
भरी दोपहरी सड़क पर चलना, बिन चप्पल के होता क्या?
छत जो टपके बारिश में तो, आसमान को रोना क्या?
हाथ पसारा रोटी को जब, बस गाली हीं पाया है
अपने मेहनत के बदले में, शोषण हीं हिस्से में अया है
तभी समझ लिया था मैंने, ये दुनिया बहुत कठोर
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