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दाल ही काला है
सच सच सच उगल रही है आज तो तुझे क्यों मलाल है,
बस तुम देख तमाशा अब मेरी दोनों आंख लाल लाल हैं।
तुम जनता को तल रहा जिन्दा जलती हुई एक ताव पर,
तेरी नियमों से ही चलना अब क्या खड़ी है एक पांव पर।
सोच समझकर गांव गलियों से तुम अब नए मुद्दा बनाते हो,
भौंक रहे पीछे पीछे लोग अब अपडेट करके गद्दा बनाते हो।
तेरे कागज तेरे फाइलों में अब बस तेरा बचा खुचा काम है,
गांव गलियां सड़क पुल धुल सब से चीखें आहें सरेआम है।
तेरे साफ कपड़ों से सब साफ़ नहीं होता अब काला दाल है,
अगर मैं झुठ हूं तो सच बता अब भी छिपाया कितना माल है।
-आलोक रंजन
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