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इक सुकून भरी नींद की तलाश में निकला ये चांद

Kuldeep DwivediKuldeep Dwivedi August 30, 2021
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इक सुकून भरी नींद की तलाश में

ये चांद भी निकल चुका, अपनी आरामगाह को....

कितनी रातें जागती बीती है, कोई नही जानता.....


बस एक टक निहारता है पृथ्वी को....

एक निश्चित सी दूरी से....

जिसे मिटाना शायद इस अपूर्ण मिलन का पूर्ण विराम हो....

पर प्रेम को जताना भी तो है.....

देखना भी है अपने प्रियतम को.....

इसलिए भी निकलता है स्याह रात के सन्नाटे में....

खामुशी का लिबास लिए.....

मन का प्रतीक ये चांद फिर भी रोज आता है....

अंबर के आंगन पर....

हारा थका हुआ रात भर का.....


वो चांद भी निकल चुका अपनी आरामगाह को.....

इक सुकून भरी नींद की तलाश में.....

कितनी रातें जागते बीती है, कोई नही जानता.....


कल फिर आएगा ये चांद....

इक नई ऊर्जा से सराबोर हो....

अंबर के आंगन पर....

तारों की महफिल फिर सजेगी.....

फिर नए गीत, फिर नई बस्ती, फिर नए लोग, फिर नए किस्से और नई उम्मीदें लेकर......

फिर नामुराद हो सुबह के आने पर....

अरुण के अंबर पर छाने पर....

खलल पड़ता देख , फिर चला जायेगा....

बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने बिना कुछ जताते हुए....

अपनी आरामगाह को....

खामोशी का लिबास ओढ़.....

पता नही कितने ही युगों से ये चांद....

निकलता है अंबर की आंगन पर.....

कोई नही जानता शायद.....


भुला हुआ कालचक्र से....

नियति के फेर में , फंसा ये चांद...

कितनी ही महारास का साक्षी....

कितनी ही पुरुरवा-उ

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